उत्तरोत्तर
रामायण
मदनमोहन तरुण
अंक – 1
स्थान युद्धभूमि । एक ओर रावण आहत हैं ।
माथे की ओर लक्ष्मण शिक्षार्थ बैठे हैं ।उनके चेहर
पर रावण के प्रति उपेक्षा का
भाव ।
रावण ः
लक्ष्मण ! तुम्हारा
विवेक बड़ा उद्धत है,
जिससे कुछ लेना है ,उसको कुछ
देना भी पड़ता है ।
हर भिक्षायाचक को द्वार पर देर तक
मिथ्या भी गुण जन का गाना भी पड़ता है।
शिक्षा को आये हो
अपेक्षित है आदर ,
अपेक्षित है श्रद्धा ।
लक्ष्मण
ः क्षमा
रावण , क्षमा !
चाहता हूँ , किन्तु मेरी निष्ठा नहीं
जमती है ।
रक्त से रँगे तेरे हाथ,
ऋषियों का लिया रक्तदान !
तुम हो
मानवता के शत्रु , विकृत , विकराल !
सीता का हरण , दम्भ का वरण,
सत्पथ विचलन , मिथ्याचरण,
गु रु तुझे कैसे कहूँ,
एक ,एक ऑंखों में
नृशंसता उभरती है ।
रावण ः रक्त तो जीवन है ,
( साश्चर्य । अट्टहास पूर्वक )
मैंने कब लिया भला ऋषियों का रक्तदान !
नहीं , रक्त वह नहीं था
वह उनकी
नस- नस में बहती अकर्मण्यता थी ,
धरती से विच्युत गगन की अर्चना थी ।
उसी से उत्पन्न हुई
सीता , स्वयं शक्ति ;
उसी से सम्पन्न हुई,
दानवता पर मानवता की विजय।
नहीं , वह रक्तघट नहीं था,
वह तो था मंगलघट।
वह भी था मेरा एक अस्त्र
जिस से हुआ अंधकार ध्वस्त।
और लक्ष्मण , भ्रम तेरा
याद रख,
विनाश मानवता का नहीं होता
विनष्ट सदा दानवता होती है ।
आज का अमृत दिवस देखते हो
रात्रि के तिमिर् ताल में
दिवा का ज्योतिर्ज्वल अरुणाभ अमिय छलका है,
तनिक देर तिमिर से घिरा था
पर सूरज यह कल का है ।
सीता की चोरी नहीं,
आवाहन था राम का लंका में ।
उद्दण्ड हो चुकी थी राक्षस जाति,
सम्भव नहीं रह गया था
कथा उपदेशों से उनका सुधार,
इसलिए आवश्यक था एक प्रत्यावर्तन
एक संहार,
ताकि आसके वसंत
प्रवाहित हो सके सूखी डालियों में
फिर से हरियाली की नदी,
खिल सकें फूल ।
लक्ष्मण ः किन्तु कुलश्रेष्ठ !
शंका एक मन में है अब भी शेष,
आप निज तपोबल से
निज दानवकुल को
देवत्व वर सकते थे,
त्रिलोकवर्ती पराक्रम से
क्या नहीं कर सकते थे ।
फिर यह अंधपथ वरण क्यों ?
यह मिथ्याचरण क्यों ?
रावण ः लक्ष्मण , यह ठीक
ही कहा तुमने
किन्तु एक सत्य है,
आग्रह वर्तमान का
असत्य नहीं होता है ।
युद्ध यह नहीं था,
परम्पराओं से हारे वर्तमान की
यही एक विजय थी
दिशाहारा अतीत पर
नूतन संकल्पों की विजय ।
नृशंस क्रूरताओं पर
कोमल आस्थाओं की विजय ।
किन्तु छूछा नहीं था सबकुछ
जो ध्वस्त हुआ ,टूटा,
क्योंकि तुम जीत कर भी
पराजित रावण से सीखने कुछ आए हो ।
और सुनो ल्क्ष्मण !
युद्ध यह नहीं था मात्र ,
यह था महाकाव्य
धर्म का , अपधर्म का
सत्य का ,असत्य का
विजय का ,पराजय का
इसका रचयिता भी मैं ही हूँ
क्योंकि
पौरुष परावलम्बी नहीं होता रावण का।
दुःख है ,
मैं खारे सिन्धु को
क्षीर नहीं बना सका !
दुःख है ,
मैं दुर्लभ स्वर्ग तक
सीढ़ियॅां नहीं लगा सका !
यह भार मैं सौंप जाता हूँ
आनेवाली पीढियों, पर
जिसमें जन्म लेगा
प्रबल महत्वाकांक्षाओं का देवता
म्झसे भी कर्मठ , मुझसे भी महान !
लक्ष्मण
ः
अर्थात फिर - फिर रावण
फिर -फिर अपहरण
वही हत्या , वही त्रास !
वही अश्रु ,वही चीत्कार !
( क्रोध से )
छल है ! छल है !!
अपनी क्षुद्रताओं को उत्कर्ष कहना जीवन का !
छल है , कुत्साओं को
महाकार , महान कहना।
छल है , अंजलि से
सागर उलीचने का दम भरना।
छल है ,छल है, आत्म प्रवंचना है !
तिल - तिल टूटती हुई
जिन्दगी से अमरत्व की अपेक्षा करना।
रावण ः
( रोकते हुए )
किन्तु लक्ष्मण …
लक्ष्मण
ः (बीच
में ही रोक कर उसी क्रोध से )
धिक्कार है ! धिक्कार है !!
तेरे वाग्विलास को , थोंथे दावों को !
बोल रावण … उत्तर दे
कैसे लगाते तुम स्वर्ग तक सीढ़ियॉं
जब कि सड़ चुके हैं तुम्हारे बाहु
स्त्रियों के अपहरण से,
हत्या,बलात्कार, रक्तपात और दमन से !
हीनतम विचारों की कारा से
तुम कब मुक्त हुए रावण !
जो तुम देख पाते ऊर्ध्व आरोहण
के उन संकल्पित
मंगल क्षणों को ,
जिसे कहते हैं लक्ष्य !
एक नया सूर्योदय , नव जीवन का !
ऐसा कौन सा रसायन शेष बचा था
तुम्हारे पास,
जिससे तुम मीठा कर देते वह सागर
जो तुमने लाखोंलाख लोगों के अश्रुओं
क्रन्दन चीत्कारों से
बेबस हाहाकारों से भर दिया है !
ऐ रौरव नरक !
आज जब तुम असमर्थ हो
बेबस लाचार हो लाशों की ढेर पर,
अपने ही लोगों का आर्तनाद झेलते हुए
तब,
गढ़ लो , , , गढ़ लो , , ,
अपने कुछ और तर्क
कहलो , कहलो
ऋषिओं के रक्तशोषण को
राम के नाम लिखा गया आमंत्रणपत्र !
दे लो सीताहरण के कारनामों को
कोई भी नया नाम !
रच लो अपनी कल्पना का
कोई नया लोक,
बच लो , बच लो , जितना बच सको
अपने जीवन की नारकीय सच्चाइयों से !
क्या था तुम्हारा जीवन,
एक जलते श्मशान के सिवा ,
जिसकी अग्नि केवल
मुर्दे खा कर ही जीवित रहती है
चीलों - गीधों की तरह !
( आक्रोशमिश्रित
व्यथा के साथ )
नहीं ,, , , नहीं , , ,
भैया ने अन्याय किया है मेरे साथ।
क्यों भेजा है मुझे
इस विदूषक के पास !
अनादर है यह लक्ष्मण की तेजस्विता का !
हे रावण !
फड़कते हैं मेरे भुजदण्ड़
उत्थित होते हैं मेरे धनुषयुक्त वाहु,
वाण व्याकुल हैं !
किन्तु
विवश हूँ मैं,
बँधा हूँ मैं आदेश से !
ऐ खलनायक !
उसी आदेश के अन्तर्गत महानायक है तू
इस क्षण !
रावण ः
( अपेक्षया शान्ति से )
चीखो मत लक्ष्मण !
मत रचो मेरी ही तरह
वाणी का आडम्बर,
मत कसो मुट्ठियॉं धनुष पर,
अनावश्यक है यह अधीरता,
यह उद्दीप्ति ।
लक्ष्मण ! तुम राम नहीं हो !
नहीं हो तुम वह चिंतन, वह आदर्श,
जो अव्याहत रहता है
उग्रतम विस्फोटों में भी !
निर्वात रहता है
उद्दीप्त दीपशिखा की भॅांति
प्रचण्ड प्रभंजनों में भी !
जिसकी दृष्टि में आयत्त रहता है
पूरा वृत्त ।
वहॉं दृष्टि
कोणों और बिन्दुओं में बन्दी नहीं है ।
तेजस्वी हो तुम, दीप्त हैं
जीवन की मंगल कामनाएँ तुममें।
अतुलनीय वीर हो तुम लक्ष्मण !
पर आतुर हो, अधीर हो तुम !
ज्वार हो , भाटा हो तुम लक्ष्मण,
नील आकाश नहीं हो !
थोड़ा सा रामत्व
तुम्हें भी चाहिए
जिसके बिना रावण ,रावण रह गया
छूछा , दंशित , टूटा हुआ ,निपट अकेला !
( तनिक रुक कर )
और जो भी कहा ,सच कहा तुमने लक्ष्मण,
किन्तु रावण की त्वचा तक ही
पहुँच रही तुम्हारी ।
रावण का ज्वार - भाटा ही देखा
तुमने ।
ओह ! ठीक , ठीक कहा तुमने
वज्र विरल वपुधारी रावण को
नृशंस , रक्तजीवी , घृण्य
और न जाने क्या क्या …
सब ठीक है,
अगम सागर में क्या नहीं है लक्ष्मण !
क्या नहीं है उस आकाश में
जहॉं तक वह अलक्षित है !
किन्तु क्या यही है पड़ाव
सार - समाहार इतना ही है
रावण पर किए गये
सारे शोध, संधान का !
क्या इसीलिए और मात्र इसीलिए
राम ने भेजा है
तेजस्वी लक्ष्मण को रावण के पास
वह भी उपदेश के लिए , शिक्षा के लिए !
नहीं लक्ष्मण , नहीं ,
यह
इतना साधारण निर्णय नहीं हो सकता ।
खेद है तुम त्वरितजीवी हो लक्ष्मण,
खेद है अथाह प्रश्नाकुलता नहीं है तुम में
अन्यथा क्यों होता यह युद्ध !
जरा सोचो लक्ष्मण,
क्या अभ्यागतों की नाक काट ली जाती है ?
अगर वह अप्रिय थी,
तुम्हारे समस्त मूल्यों के विरुद्ध था उसका आचरण,
चलो मान लिआ,
किन्तु क्या सूर्पणखा का यही उपचार था !!!
क्या तुम्हारे यहॉं काममोहिताओं की
नाक काट ली जाती है ?
सूर्पणखा, सीता नहीं थी लक्ष्मण ,
वह रक्षकुल की वीरांगना थी
भिन्न हैं जिसके काममूल्य
देह जहॉं परितृप्त होती है
किसी भी उपलब्ध जलधारा से।
तुम थे ब्रह्मचारी लक्ष्मण,
सूर्पणखा तो नहीं थी !
और मात्र इसीलिए , केवल इसीलिए
तुमने सूर्पणखा को विरूपित कर दिया ।,
किस संस्कृति के रखवाले हो तुम,
कौन सा धर्म है तुम्हारा !
कैसे सहन कर लेता मैं
अपनी ही बहन का विरूपण !
उसका वह दारुण अपमान !
( विक्षोभ और व्यग्रता से
)
ओह ! अब भी है याद
उसकी वह रक्तरंजित नासिका !
भरी सभा में खड़ी थी सूर्पणखा
रावण की महाकार तेजस्विता
को मुँह बिराती हुई !
ऐसे में करणीय वही था जो किया हमने ।
नहीं , कोई पश्चताप नहीं है मुझे,
तुम चाहे गढ़ते रहो कहानियॉं
लिखवाते रहो अपने चारणों से
गाथाएँ , इतिहास , पुराण !
लक्ष्मण
ः
( उत्तेजनापूर्वक
)
वही सत्य का एकांगी अधूरा प्रत्याख्यान,
वही रावण और रावण , वही रावण,
यानी सूर्पणखा तक रुका रावण,
एक अपाहिज विवेक
जो तात्कालिक उत्तेजना से
आगे नहीं देख सकता।
यानी कटी हुई नाक
और केवल कटी हुई नाक
तक पहुँच है रावण की।
रावण -
माना कामातुर
थी सूर्पणखा
हिल्लोलित थी उसकी काया
कल्लोल के लिए।
ज्वार - विकल था उसका समुद्र
मंथन के लिए।
लक्ष्मण- यहॉं तक
हम प्रार्थी रहे…
प्रार्थी रहे …
अपने मूल्य अपनी आस्थाएँ समझाते
रहे उसे,
किन्तु सूर्पणखा स्वयं अपनी सीमा थी।
निषेध नहीं सीखा था उसने
उसे चाहिए था खेलने को राम या लक्ष्मण !
इसलिए असह्य थी उसे
फूलों की घाटी - सी
सौरभ की नदी - सी
वायु के मसृण स्पर्श - सी विदेहपुत्री
शुक्ला स्वयं सीता !
उद्धत वह सूर्पणखा
टूट पड़ी थी
अग्नि की हूह भरती ऑधी सी
उस परम पुनीता पर
रघुकुल की सीता पर
भैया स्तब्ध थे , अवाक थे।
क्षण भर की दूरी थी
सीता और सूर्पणखा में
जीवन और मृत्यु के बीच।
ऐसे में रावण !
क्या कर्तव्य था लक्ष्मण का !
मात्र संयोग है रावण
कि
शेष रह गयी सूर्पणखा
बरना उसका यह कुत्सित खेल
खत्म था उसी पल !
प्रार्थना जब विफल हो जाए
तब पलायन नहीं है उसका विकल्प ।
सूर्पणखा की सनातन पिपासा का
उत्तर नहीं था सीता का अपहरण।
और
यदि रावणधर्म यही है ,
तो उसका उत्तर भी यही है रावण
जो घटित हुआ लंका में
जिसकी उपलब्धि हो तुम !
और यदि इस युद्ध का
निमित्त भी मैं ही था रावण !
तो भी वरेण्य था वह ।
वरेण्य था एक विक्षत विवेक
दुराचारजीवी पाण्डित्य का विखंडन,
वरेण्य था एक मॅुंह बिराते
प्रश्न को उचित उत्तर ।
आज तुम खंड- खंड हो रावण !
हर प्रकार से चूर्ण – विचूर्ण !
कल जहॉं अगाध जल था
वहॉं सिर्फ रेत है,
कल जो जीवित था
आज वह मात्र एक भयावह स्मृति है।
इसके निमित्त तुम हो रावण
सिर्फ तुम ।
यह भस्मसात लंका भी
तुम हो रावण ।
मंदोदरी भींगती है आज जिन ऑंसुओं की वर्षा में
वह घमंड घटा भी तुम्हीं हो रावण ।
रावण ः
बस … बस … बस लक्ष्मण
उस युद्ध के घावो से भी दर्दनाक हैं
तुम्हारे ये आघात,
शब्द नहीं हैं ये
भीतर तक उधेड़ते चले जाते हैं ये वाण ।
( व्यथित भावुकता से )
मंदोदरी , ओह मेरी प्रिया !
मृत्यु की इस अँधेरी हुहुआती नदी
के
इस
वीरान तट पर
कितना… कितना अकेला है रावण !
किन्तु क्या
बस इतना ही है रावण ?
किन्तु क्या
बस इतना ही था रावण ?
थाहो लक्ष्मण , अदृश्य को थाहो ,
अगम्य की और भी अतल गहराइयों में।
रावण की त्वचा के भीतर के
रावण को भी देखो लक्ष्मण !
पढ़ो विपरीत से विपरीत सत्य को भी
क्योंकि उसका कोई
निजी घर नहीं होता ।
देखो इस अहरह उद्वेलित
महासागर की गहराइयों को
जहॉं सबकुछ शान्त है
बहुवर्णा मत्स्य -कन्याओं के
कल्लोल से कूजित
बहुवर्णी सागर के
अनन्त रंगों में तरंगित ।
स्वात्म के मसृण प्रसार में
जहॉं सबकुछ शान्त है …
नहीं है ज्वार- भाटा भी नहीं
है जहॉं।
जहॉं सागर विश्राम करता है
अपनी ही शैय्या पर
सौम्य , शान्त अनुद्वेलित !
लक्ष्मण
ः
( उत्तेजना से
)
छल है , प्रवंचना है , शब्दजाल है,
ओछा पाण्डित्य है ,
चिप्पी है
आत्मकथा पर
दूसरों की पढ़ी हुई
गाथाओं की ।
रावण , तुम गहरे थे ही कब
जो होंगीं गहराइयॅां तुम में !
हर कीचड़ कमल नहीं खिलाता
कालिख की दीवारें नहीं जनतीं सूरज
इसीलिए कहता हूँ रावण,
बेहतर है,
अब भी सहज हो जाओ।
मृत्यु की घड़ी है
जीवन का अन्त है
अब भी समय है
हो सके तो स्वयं को वर लो रावण
मत दो उसे हजारों झूठे नाम
हो सके तो अब भी सँवर लो रावण !
रावण ः
उफ ! बडी, धार है , तीखी चीरती हुई धार ,
तुम्हारी वाणी में
जो मुझे विदीर्ण करती है गहराइयों तक !
तुम निरावृत सत्य हो लक्ष्मण !
मायावियों से सर्वथा भिन्न !
इसीलिए तुम्हें जीत नहीं पाए
महाबली मेघनाद , दानव दल महाकार ।
लेकिन मैं ,
तुम्हारे व्यूह में
खुद को घिरा हुआ पाता हूँ।
( तनिक रुक कर )
किन्तु … किन्तु … यह मेरी यात्रा का
अंतिम पड़ाव नहीं है लक्ष्मण !
नहीं है यह रावण की अंतिम हार
उधार के युद्धों से नहीं मरते रावण।
लक्ष्मण
- (चकित सा )
उधार के युद्ध
! )
रावण ः
लक्ष्मण हॉं ! उधार के युद्ध !
सीता के जीवन को देखो लक्ष्मण,
उत्पन्न किया उसे धरित्री ने भाण्ड में बन्द कर।
क्यों लक्ष्मण, क्यों ?
क्योंकि
वह
दुर्बलतम थी
नहीं लड़ सकती थी
अपना युद्ध
सीता बेनाम थी
राम के बिना
उसे
और क्या बनाया था तुम्हारी परम्पराओं ने लक्ष्मण,
एक ख्का हुआ प्रतीक !
होगी वह अमित बल – वैभव का आगार …
सुना था
बड़ी सरलता से वह त्रिपुरारि के धनुष को
हटा कर पूजास्थान की प्रतिदिन करती थी सफाई
त्रिपुरारि के उस धनुष को , जिसे और तो और
मैं भी नहीं कर सका था टस -
से - मस।
वही सीता
प्रतीक्षा करती रही लंका में अपने त्राता की
मॉगती रही वृक्षों से आग
वह भी , मुझे जलाने के लिए नहीं,
करने को आत्मदाह !
किसने बनाया सीता को इतना परनिर्भर ?
किसने बनाया बल के उस महागार को इतना दुर्बल ?
अपनी किस परम्परा पर गर्व है तुम्हें लक्ष्मण !
उस परम्परा पर ,
जो सीताको सिखाती है सहन और सहन
करना…
और केवल सहन करना…
और
धीरे –धीरे उसे इतना तोड़ देती
है कि
अग्नि की देवी बन जाती है राख !
वीरता बन कर रह जाती है
अपने किसी त्राता की प्रतीक्षा !
परम्पराओं से छली गयी उसी सीता को हर लाया रावण
एक पिंजरबध्द पक्षी को
जैसे गरुड॰ को हर लाए कोई चील !
आज सच कहता हूँ लक्ष्मण !
सीता का हरण करते समय भयभीत था मैं
जानता था
उसके एक आघात से ध्वस्त होसकता था रावण।
किन्तु अब भी याद हैं सीता की वे भयत्रस्त ऑखें !
जो आग बरसाने में समर्थ थीं
वही कातरता से पुकार रही थीं
हा राम ! हा लक्ष्मण !
वह सीता , सीता नहीं थी
वह थी
तुम्हारी तथाकथित महान परम्पराओं से गढ़ी गयी सीता
जो अग्नि की तरह नहीं कर सकी मुझे भस्मसात
समर्थ होकर भी
सिर्फ धुऑती रही
प्रचण्ड ज्वाल भूल गयी
जैसे अपनी ही पहचान !
ऐसी परम्परा को धिक्कार है लक्ष्मण !
इससे तो हम अच्छे जो अपनी ताड़ुकाओं को भी
नहीं बनाते
इतना परनिर्भर
कि उसे सॉंस तक लेने के लिए
अज्ञा लेनी पड़े औरों की !
रावण
इसीलिए जीवित रहेगा , लक्ष्मण !
क्योंकि सीता को बनाया है
तुम्हारी नितान्त अर्थहीन परम्पराओं ने परजीवी।
सुनो लक्ष्मण ! मेरा यह उपदेश या संदेश जो भी कहो
रावण तब तक नहीं मरेगा
जबतक सीता स्वयं नहीं होती खड़गहस्त।
जबतक सीता स्वयं नहीं लड़ती अपना युद्ध ।
जबतक वह प्रतीक्षा करती रहेगी
अपने त्राताओं की ,
जबतक वह मॉंगती रहेगी अशोक से अग्नि,
तबतक …तबतक …
रावण करता रहेगा अट्रटहास ,
ऐसे ही होता रहेगा सीताओं का हरण ,
मानमर्दन, संहार।
जबतक सीता जीती रहेगी उधार का जीवन,
तबतक अजेय है रावण ।
जबतक सीता जलती रहेगी दूसरों की आग में,
जबतक सीता याचक है अशोक के आगे,
जबतक सीता नहीं बन जाती स्वयं अग्नि,
स्वयं उल्का,
तबतक …तबतक … अजेय है रावण !
( ये शब्द बार - बार चारों ओर गूंजते रहते हैं और
मंच पर धीरे –धीरे अंधकार छा जाता है। सिर्फ
लक्ष्मण पर एक हल्की प्रकाशरेखा है। वह विस्मित सा
खड़ा उस ओर देख रहा है , जहॉं
रावण था ।
तभी प्रकाशरेखा दूसरी दिशा की ओर घूम कर
धीर्रे धीरे मंद हो जाती है
।)
अंक – 2
( सागरतट।पीछे से सागर का गर्जन सुनाई पड़ रहा है।
मंच पर हल्का प्रकाश।
लक्ष्मण चिारमग्न दूर देख रहे हैं।
राम नेपथ्य से धीरे - धीरे
आगे मंच पर आते हैं।
उनकी छायाकृति धीरे धीरे स्पष्ट होती चली जाती है।
थोड़ी देर वे लक्ष्मण के पीछे
खड़े रहते हैं ।सस्नेह
देखते हुए।फिर सामने आते हैं।लक्ष्मण उन्हें सहसा
सामने देख कर खड़े हो जाते हैं
। मंच पर पुनः
पूर्ण प्रकाश …)
राम ( सस्नेह लक्ष्मण की पीठ पर हाथ रख कर )
सुना , , , सब सुना मैंने लक्ष्मण
!
कटु था , किन्तु सत्य था यह।
जिसे कोई नहीं कह सकता था
रावण के सिवा।
यही उद्देश्य था तुम्हें यहॉं भेजने का
ताकि उजागर हों सत्य के वे सभी पहलू
जिसे हम अनदेखा करते रहे।
अथवा
जो बन्दी रहे हमारे
संस्कारों की कारा में,
अथवा
जिनपर आरूढ़ रहा हमारा विजेता का अहम्
क्योंकि
पराजित की सत्ता को
हर रूप में अस्वीकारना सिखाया गया है हमें।
कहीं अपने भीतर एक कोलाहल
अनुभव करता रहा हूँ लक्ष्मण !
सीता शिकार हुई है
हमारे निष्क्रिय मानदण्डों का,
अन्यथा क्या उत्तर है हमारे पास
रावण के इस प्रश्न का
कि कहॉं खो गयी वह सीता
जिसने सहज ही उठा लिया था
त्रिपुरारि का वह धनुष
जिसे हिला भी नहीं पाये थे
सहस्रों वीर एकसाथ !
सीता की हत्या हुई है लक्ष्मण
!
इतिहास और परम्पराओं के बीच की
दुरभिसन्धि के लम्बे इतिहास के अॅधेरे गलियारों में !
हम भी सम्मिलित हैं उस हत्या में लक्ष्मण !
जाने अनजाने उस कुटिल क्रीड़ा से
हमने भी छला है , हरा है उसका स्वत्व,
यही व्यथा सालती है मुझे …
( तभी जोर जोर से मेघों के गरजने की आवाज ।
बिजली की कड़कड़ाहट, भूकम्प और पृथ्वी
फटने की आवाज । धनुष की तीव्र
टंकार
सुनाई देती है ।राम, लक्ष्मण उसी ओर देखने
लगते हैं । )
लक्ष्मण
ः कौन
है यह !
धधकती अग्निशिखा सी
मूर्तिमान ज्वालामुखी - सी
किसी नये युग के
नूतन अवतार – सी !
सीता ः
मैं हूँ, सीता !
किन्तु वह सीता नहीं, जिसे
तुम्हारे प्रपंची कवियों ,
महाकवियों ने रचा।
पवित्रता की परीक्षा के नाम पर
आग में जलाई जाने वाली सीता भी नहीं।
नहीं , वह सीता भी नहीं,
जो अपमानित हो ष ड यं त्र - जीवियों से
समाहित हो जाती है चुपचाप
धरती के भीतर !
सुनो लक्ष्मण !
मैं तुम्हारे प्रपंची
कवियों महाकवियों के
उपसंहार को निरस्त करती हुई
पृथ्वी में प्रवेश का निर्णय त्यागती हूँ ।
अब मैं शोक से आवृत
उपेक्षा से आहत
किसी राम के व्यवहार से लज्जित सीता नहीं।
जल चुकी मैं आग में,
कलंकित ग्लानि में,
अपना गर्भ ढोती फिरी मैं जंगल
- जंगल
एक ही नाम जपती और पुकारती हुई
सुनो लक्ष्मण मर गयी वह सीता।
पृथ्वी की गहराइयों में सदा के लिए समाहित हो गयी
वह सीता।
अग्नि को अपनी ध्वजा की भॉति
धारण करती है यह सीता।
अपने ही गर्भ से उत्पन्न है यह सीता
स्वयम अपना कुल
स्वयम अपना परिचय
अपत्नी
मात्र सीता और केवल सीता।
सीता प्रतीक्षा नहीं है
किसी अन्य के धनुष की टंकार की
अपनी रक्षा के लिए
स्वयम अपना धनुष है वह
स्वयम अपना युध्द
हुंकार
वह स्वयम लिखेगी अब अपना रामायणोत्तर
सीतायन,
उसे नहीं चाहिए किसी की लेखनी उधार।
सीता के विवेक पर
अब मुहर नहीं चाहिए किसी की
सीता स्वयम लड़ेगी
अब से अपने सारे युध्द।
स्वयम रचेगी अपना आचरण और न्यायशास्त्र,
नई ईंटों से गढ़ेगी अपना न्यायालय
उस व्यतीत एकालापी परम्परा के विरुद्ध ।
राम ः
सीते , अपराधी हूँ मैं !
जिस अग्नि में तुम जली
वह थी ,
उन गर्हित परम्पराओं की आग
जिसके उत्ताप से मैं भी अपरिचित था।
नहीं जानता था कि
इस आग से तन भले ही सुरक्षित बच जाए ,
परन्तु यह कर देती है
स्वत्वबोध को कलंकित और राख।
उत्तरदायी हूँ सीते !
अपने अनजान अपराथों के लिए।
सीता ः
राम! जब मैं तुम्हारे न्याय का ढिंढोरा बनी
वाल्मीकि के जंगलों में
ढूँढ़ती फिरी आश्रय
तुम्हारे भविष्य का,
तब तुम अयोध्या में
सोने की सीताओं से यज्ञ रचाते रहे ।
राजे हर स्थिति में पूज्य होते हैं
उनका हर चिंतन
एक स्वस्थ परम्परा है,
उनका हर आचरण
एक महागाथा है ।
तभी से जानती हूँ
जब विवाह मेरा था
और प्रतिज्ञा की थी जनक ने
ओर तोड़ा जाना था एक धनुष।
जयमाला लिए मंच पर
न जाने कितनी बार खड़ी हुई और बैठी मैं ।
आता और लौटता रहा
कायर , विलासी राजपुरुषों का दल
जो धनुष को टस से मस भी नहीं
कर सका,
उस धनुष को,
जिसे बचपन में मैने न जाने
कितनी बार
खेल - खेल में उठा लिया था।
हर बार परवशता का निष्ठुर अपमान
मुँह बिराता रहा मुझे ।
सच है
तभी मैंने समझा था
क्लीवता भी जब पद पाती है,
वीरता कहलाती है ।
उन्हीं दिनों
पराजय से खंड -खंड जीवन
के
अपमानित क्षणों में
मैंने तुम्हें देखा था
और
तुम्हें देखते ही
लगा था
बस तुम्हीं हो , तुम्हीं हो
केवल तुम्हीं हो
मेरे प्राप्य,
मेरी प्रतीक्षा !
याद है अब भी
वह जाग्रत क्षण
जब मैने पुलकित मन
और कॉंपते हॉंथों से
डाली थी माला
तुम्हारी ग्रीवा में !
तब
नाच उठी थी
रोम राशियों की पत्ती - पत्ती,
खिल उठे थे प्रतीक्षा के
फूल – फूल,
परन्तु ,
वह नाटक था
महाकाल के एक क्षुद्र क्षण का
जिसमें कभी - कभी
भर जाती है झोली अयाचित ही
और हथेलियॉं बन जाती हैं समुद्र ।
मुझे याद है
जब
रावणवध की लम्बी
मिलनातुर प्रतीक्षा के बाद
शिविका से
ला रहे थे विभीषण
मुझे तुम्हारे पास
तब… तब…
तुमने
अपनी ही
दारुण शंकाओं की
आग में झुलसते
अपने क्षण - प्रतिक्षण के हाहाकारों के
एक - एक कर
चुभते वाण छोड़े थे मुझ पर
लाखों वानरों
और सहस्रों समर्पित दानवों के बीच
मुझ शंकारहित सर्वसमर्पित निरस्त्र पर ।
ओह !
वे क्रूर शब्द
अब भी विदीर्ण करते हैं वक्ष
निर्दय शूल की तरह
"पर्दा सतियों के लिए है ।"
तुमने मेरे अंग अंग पोर - पोर पर
शंका की थी
जैसे रावण के अंगों के उत्ताप में
पिघल चुकी हो मेरी काया ।
याद है क्रू्र !
जब तुमने कहा था -
‘चली जाओ
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम
जहॉं भी चाहो
पूर्ण हो चुका मेरा कर्तव्य
तुम्हें रावण से छीन कर
कुल की लज्जा की रक्षा की मैंने
सिद्ध किया रघुवंश का प्रताप ।
हे सीते !
अब तुम मुक्त हो
इस अनंत आकाश के नीचे
इस विशाल पृथ्वी के खुले विस्तार में ।
यह युद्ध था महज
रघुवंश की प्रतिष्ठा का
निजी नितान्त निजी स्थापनाओं का’
और
ये कुलाधम क्रीत बुद्धिजीवी, कवि ,महाकवि
गढ़ते रहे नये - नये तर्क
तुम्हारे इस ओछे आचरण के पक्ष में
सदा की तरह ।
कहॉं थी तुम्हारी महानता उदारता
जब मैं खड़ी की गयी थी
धधकती अग्नि के बीच
सतीत्व की परीक्षा के नाम पर !
क्या मेरी नहीं थी काया
तुम्हारी ही तरह !
क्या मैं ही थी धातु सी जड़ और निष्प्राण
क्या तुम नहीं रहे थे अकेले इन वर्षों में ?
क्या तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं थी
वैसी ही अग्नि - परीक्षा ?
नहीं , यह महानता का एक अधम खेल था
बच गये तो अपने भाग्य से
और
जल मरे
तो
एक और पृष्ठ लिखा जाएगा स्वर्णाक्षरों से
रघुवंश का ।
यह था हमारी दाख्ण प्रतीक्षा का
तिल तिल घुलाता
पल पल तोड़ता
मिलन का अपमानित पुरष्कार !
उफ !
मुझे क्या समझा था तुमने
जब चाहा
आग में जला दिया,
जब चाहा
पृथ्वी की गहराइयों में दबा दिया
और
तुम्हारे बुद्धिजीवी
इसे तुम्हारी जयगाथा बना कर
झंडे सा फहराते रहे ।
यानी
तुमने जो किया
वह महज लीला थी
और
मैं जो तिल - तिल जली, झुलसी,
अपनी ही ज्वालामुखियों में
अपमानित हुई पल- पल
कभी मर्यादाओं के नाम पर
कभी रघुवंश
तो कभी
रामराज्य के किसी धोबी के नाम पर,
वह थी मेरी नियति !
कोरी नियति !
जिसे
ढोने को
अभिशप्त थी मैं
अकेली असहाय !
राम ः
इस दारुण नियति
से मै भी कब वंचित रहा सीते !
परम्पराओं व्दारा निर्धारित कर्तव्यों की बलिवेदी पर
न जाने कितनी बार आहत हुआ मैं !
प्रवंचित किया गया बार – बार अपने प्राप्य से !
जरा उस निष्ठुर खेल के पलों की
ओर
एक बार और देखो तो सीते !
पिता की आज्ञा से तैयार हूँ मैं राज्याभिषेक के लिए
और दूसरे ही पल उसी आज्ञा से
वल्कल वस्त्र पहने
वनवासोन्मुख हूँ ।
तब… मैंने किससे पूछा था
सीते ,
इसका कारण ?
राज्याभिषेक की तरह ही
वनवास की आज्ञा भी शिरोधार्य थी हमारे लिए।
क्या सोचती हो पत्थर , चट्टान सा निष्प्राण था मैं !
नहीं घिरा होगा मेरा अन्तस्तल भी भयानक वात्याचक्रों से !
नहीं चमक उठी होगी इस अकारण क्रूरता के विरुद्ध
मेरे भीतर भी प्रतिहिंसा !
यह जानते हुए भी कि
उचित नहीं था पिता का निर्णय,
अपनी असहाय चुप्पी और
विस्फोटक आक्रोश के बीच
एक ओर भस्मसात राख और दूसरी ओर
आग सा धधकता हुआ
मैं
खड़ा था , जहॉं न तो मेरी कोई पृथ्वी थी,
न अपना कोई आकाश।
कौन - सा सुख का पल बिताया मैंने !
सोचा था वनवास है तो क्या
प्रिया का साथ तो है प्रतिपल
जीवन की एक ही आशा रही थी शेष
तुम्हारे हाथों में सतत रहेगा मेरा हाथ
किन्तु,
ओह री नियति !
उस एकमात्र आशा का भी हुआ अपहरण
राम के एक पल का सुख भी
स्वीकार्य नहीं था अदृश्य को !
सीता ः
जानती हूँ
और करती हूँ सम्मान
उस राम का
जिसकी शक्ति है आग और पानी।
जानती हूँ
उस युगनायक वनवासी को
जिसने रावण की विकट वाहिनी के विरुद्ध
गढ़े वानरों और रीछों से महान
योध्दा
जिसने अपने महान संकल्पों से
रच दिया एक अपराजेय महाप्राण हनुमान।
जिसने उच्छल सागर के जल को भी कर दिया स्थिर
अपने संकल्पों से
और
उसी जल पर यात्रा करती रही
उसकी अपराजेय वहिनी सागर के पार
सम्भव,
असम्भव की छाती पर लिखता रहा जहॉ
एक अभूतपूर्व गान।
ओह , कैसी अद्रभुत रही होगी वह यात्रा !
किन्तु,
राम इतना टुकड़ा –टुकड़ा क्यों है !
क्यों कई बार बड़ी हो जाती हैं
उसके विवेक की कसौटी पर अनकसी परम्पराएँ !
( सहसा आक्रोश एवं उत्तेजना पूर्वक )
इस राम में कितने राम हैं !
अहिल्या के प्रति अन्याय से करुणाद्रवित राम !
अहिल्या के पक्ष में
एक पूरी परम्परा के विरुद्ध अविचलित खड़ा राम !
और दूसरा अफवाहों के पीछे दौड़ लगाता राम !
कितने राम हैं इस राम में !!!
कौन सा सच्चा राम है इन रामों के बीच !
अब भी अनुत्तरित हैं वे सारे प्रश्न
प्रतिपल हर ओर से मुझे घेरे हुए
अहिल्या क्षम्य क्यों थी
और क्यों थी त्याज्य सीता ?
सीता,
जो सिध्द कर चुकी थी अपना स्वत्व
धधकती आग में
एक विद्युत रेखा सी
अम्लान चलती हुई !
क्यों पत्थर – सी खड़ी अहिल्या को देख पिघल पड़ा राम !
और क्यों लोकप्रियता की राजनीति का खेल खेला गया सीता से
महज एक नसेड़ी दुर्मुख के मिथ्यालाप पर !
बोलो राम ! उत्तर दो
जब मैं तुम्हारे न्याय का ढिंढोरा बनी
वाल्मीकि के जंगलों में
ढूँढ़ती फिरी आश्रय
तुम्हारे भविष्य का
तब तुम अयोध्या में
सोने की सीताओं से यज्ञ रचाते रहे,
सच कहो राम
किसका था वीर्य मुझमें
लव और कुश का आकार लेता हुआ !
कौन साक्षी था इस सत्य का
तुम्हारे सिवा ?
फिर भी तुम चुप रहे
किस मर्यादा के नाम पर राम ?
वालिवध की मर्यादा के नाम पर ?
या रामराज्य की मर्यादा के नाम पर ?
क्या मैं नहीं थी
उस रामराज्य की नागरिक ?
क्या सम्राट खड़ा नहीं कर सकते थे मुझे
उस धोबी के सामने ?
या स्वयं मर्यादा पुख्षोत्तम
नहीं खोल सकते थे सत्य के पक्ष में
अपना मुँह ?
नहीं , राम नहीं,
सच तो यह था कि
रावण के स्पर्श से दंशित
मेरी काया
तुम्हें सदा सालती रही
तुम भी जलते रहे
अपने भीतर की ज्वालामुखियों में
धोबी तो महज एक मार्ग था
उस अभिशापित काया से मुक्ति का
जो आग में जल कर भी पवित्र नहीं हुई ।
राम ः सच है सीते !
रावण से प्रतिशोध के बाद भी
कभी शांत नहीं हुआ मैं।
तुम्हारी वह निर्मल काया
जिस पर कर पड़े रावण के हाथ
अपहरण के पलों में,
उसे कभी भूल नहीं पाया मैं।
मुझे पल - पल सालती रही वह
स्पर्शित तुम्हारी देह।
यदि रावण को चूर्र्ण - विचूर्ण भी कर देता
मिला देता उसे मिट्टी में ,
बुझा कर, कर भी देता सदा के लिए उसे राख ,
तब भी …तब भी सीते…
मुझे मुक्ति नहीं थी उस त्रासक ,अपमानित घिनौने क्षण से
जब उसने तुम्हें छुआ था !
वह तुम्हारी काया
जिसे रावण ने निहारा आसक्ति से !
ओह ! अब भी वह पल मुझे उतना ही दंशित करता है।
उसी काया को अपनाने के लिए
मैंने तुम्हें आग्नि की उस सरिता में नहलाया।
किन्तु
यदि तुम देख पाती चीर कर मेरा आन्तस्तल
किस तरह आकुल हाहाकार कर रहा था मैं भीतर ही भीतर
जब तुम गुजर रही थी आग की उन भयावह लपटों से
राम क्षार - क्षार हो रहा था सीते !
अन्तर इतना ही था
तुम
सबके सामने थी
और राम अन्तस्थ था
पद – पद जल - जल कर क्षार होता हुआ !
सीता -(अनसुनी करती हुर्ई ) ओह , दारुण थी वह नरक की आग !
सोचा था जल जाऊॅगी और
खत्म हो जाएगा प्रताड़नाओं का यह खेल सदा के लिए
किन्तु
तुम्हारे दायित्वों और कुलाभिमान की रक्षा की और भी
न जाने कितनी चिताएँ शेष थीं
मुझे तिल –तिल जलाने के लिए।
( विक्षोभ व्यथा और आक्रोश मिश्रित स्वर में )
ओ , अफवाहजीवी सम्राट !
तुम्हारा अधिकारबोध
विशाल दानव की तरह
हुंकारता हुआ
सदा लीलता रहा मुझे।
तुम्हारा अपना हीं धुऑं
सदा कालिख पोतता रहा
मुझ पर।
और तुम
निर्विकार प्रतिमा की तरह
पूजित रहे, वंदित रहे ।
हे राम !
यह सब क्या था
सत्य, मर्यादा , प्रजातंत्र
या
झूठ ,छल या फरेब
या ढोंग
क्या था यह ???
……………।।
अब सीता का घर केवल देहरी के भीतर की दीवारें ही नहीं लक्ष्मण !
सीता स्वयम अब एक नया सूर्योदय है नये तेजस्वी ब्रह्माण्ड का।
अपनी ऑखें मूँद लो लक्ष्मण
और पैदा करो अपने लिये नयी ऑख
पुरानी ऑखों से असम्भव है
नयी सीता,
इस
धधकती ज्वाला का साक्षात्कार !
( धीरे –धीरे ज्वालामूर्ति दूर होने लगती है । )
लक्ष्मण
ः
मॉ … मॉ… मॉ…
राम ः
सीते …सीते …
हनुमान ः भगवन ! अब वहॉं नतो मॉ है
न सीता।
अनन्त अपमानों के समुद्र - मंथन से उत्पन्न बड़वानल है
एक नया युग है, भगवन !
धनुष - सा तना हुआ
एकदम सामने
सन्नध्द
वाण की चमकती नयी नोक पर
रचने को नया इतिहास।
लक्ष्मण
ः
ओह ! कैसे प्रश्न
थे वे ,
जैसे लपक रही हों एक के बाद एक
भयंकर से भयंकरतम लपटें !
ओह , भइया ! हम पहली बार सर्वथा निरुत्तर थे
स्तब्ध ! स्तम्भित !
राम ः
प्रश्न वे नहीं
थे लक्ष्मण ,वह था एक नया युग , अपने ही गर्भ
से जन्म लेता हुआ।
हनुमान ः
भगवन , लगता था
जैसे एक प्रचण्ड ऑंधी आई और उड़ा ले गयी एक पुराने युग को
और हमें छोड़ गयी निराधार।
हमारे पॉंवों के नीचे नहीं रह गयी धरती।किन्तु न जाने क्यों
मुझे अब भी लगता है
मॉं की गोद में सुरक्षित हूँ ।किन्तु कैसी है विडम्बना भगवन ! मैंने मॉं को
जब भी देखा हमेशा
आग की लपटों में ही देखा।जैसे धधक रही हो पृथ्वी।
राम ः यह धधकती पृथ्वी ही
सीता है हनुमान!
अगर देख सको तो देखो वह जन्म
ले रही है
अपने ही गर्भ से।
वह स्वयं अपना धनुष है।
स्वयं अपनी प्रतिज्ञा।
स्वयंवरा।
सीता।
(लक्ष्मण और हनुमान दूर तक देखते रहते हैं। समने जैसे
सूर्योदय होरहा हो ।सीता धीरे –धीरे आती हैं नये युग की
नये ढंग की श्वेत साडी में। राम , लक्ष्मण सभी सम्मान में
झुकते हैं , परन्तु वे जैसे आयी थी वैसे ही नये विश्वासपूर्ण
चरण रखती दूसरी ओर से चली जाती हैं। )
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